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लेखनी कविता -फरिश्तों और देवताओं का भी - फ़िराक़ गोरखपुरी

फरिश्तों और देवताओं का भी / फ़िराक़ गोरखपुरी

फ़रिश्तों और देवताओं का भी,
 जहाँ से दुश्वार था गुज़रना.
हयात कोसों निकल गई है,
 तेरी निगाहों के साए-साए.
हज़ार हो इल्मी-फ़न में यकता१,
 अगर न हो इश्क आदमी में.
न एक जर्रे का राज़ समझे,
 न एक क़तरे की थाह पाए.
ख़िताब२ बे-लफ़्ज़ कर गए हैं,
 पयामे-ख़ामोश दे गए है.
वो गुज़रे हैं इस तरफ़ से,जिस दम
 बदन चुराए नज़र बचाए.
मेरे लिए वक्त वो वक्त है जिस दम,
 'फ़िराक़'दो वक्त मिल रहे हों.
वो शाम जब ज़ुल्फ़ लहलहाए,
वो सुबह चेहरा रिसमिसाए.

१. अद्वितीय २. सम्बोधन

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